पाठ - 1, पद (व्याख्या)

                                                                        कक्षा - 10वीं 

विषय -  हिंदी 

पाठ - 1

पद  (व्याख्या)

ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी | 

अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी | 

पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी | 

ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी | 

प्रीति नदी में पाऊँ न बोरयो, दृष्टि न रूप परागी |

'सूरदास' अबला हम भोरी, गुर चाटीं ज्यौं पागी | |

व्याख्या - उपरोक्त पंक्तियों में गोपियाँ ऊधौ पर व्यंग करते हुए कहती हैं कि ऊधौ तुम तो बहुत ही भाग्यशाली हो जो श्रीकृष्ण के साथ रहते हुए भी उनसे प्रेम नहीं कर पाए अर्थात उनके प्रेम में नहीं पड़े हो | तुम तो कमल के उस पत्ते के समान जो जल में रहते हुए भी गीला नहीं होता अर्थात उस पर पानी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता | तुम तो तेल के उस घड़े के समान हो जिसे जल में डुबाने पर भी उस पर पानी की एक बूँद नहीं ठहरती अर्थात उस पर पानी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता | गोपियाँ कहती हैं कि हे ऊधौ तुम श्रीकृष्ण रूपी प्रेम की नदी के साथ रहते हो फिर भी उसमे स्नान करना तो दूर तुमने उसमें पैर तक नहीं डाले | गोपियाँ कहती है कि हम तो भोली भाली हैं, अबला हैं अर्थात असाहय हैं | हम तो श्रीकृष्ण से इस प्रकार प्रेम करती हैं जिस प्रकार चीटियाँ गुड़ से लिपटी रहती हैं |

मन की मन ही माँझ रही | 

कहिए जाइ कौन पै उधौ, नाहीं परत कही | 

अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही | 

अब इन जोग सँदेसिनी सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही | 

चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही | 

'सूरदास' अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही | | 

व्याख्या - उपरोक्त पंक्तियों में गोपियाँ ऊधौ को कहती हैं कि हमारे मन की बात हमारे मन में ही रह गई अर्थात जिनको अपने मन की बात कहनी थी वो तो आए नहीं और हम अपने मन की बात आपको नहीं कह सकते | गोपियाँ कहती हैं कि उनके लौटने की आस में हम इतने समय से अपने तन-मन की पीड़ा को सह रही थी | हम तो ये सोच रही थी कि श्रीकृष्ण आयेंगे परन्तु श्रीकृष्ण तो नहीं आए और ये योग संदेश भेज दिया इस योग संदेश ने हमारी विरह वेदना को और बढ़ा दिया है | हम तो अपने दुःख की घड़ी में अपने रक्षक को पुकारना चाहती थी लेकिन हमारे तो रक्षक ही हमारे दुःख का कारण हैं |अब हम धैर्य क्यों रखें जिनको प्रेम की मर्यादा को निभाना था उन्होंने ही मर्यादा का उल्लंघन कर दिया | 

हमारैं हरि हारिल की लकरी | 

मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी | 

जागत सोवत स्वप्न दिवस निसि, कान्हा-कान्हा जक री | 

सुनत जोग लागत है ऐसौ , ज्यौं करुई ककरी | 

सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी | 

यह तौ 'सूर' तिनहिं लै सौंपौं, जिनके मन चकरी | |  

व्याख्या - उपरोक्त पंक्तियों में गोपियाँ ऊधौ को कहती हैं कि श्रीकृष्ण हमारे लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान हैं जिस प्रकार हारिल पक्षी लकड़ी को पंजे में पकड़े रखता है उसी प्रकार श्रीकृष्ण भी हमारे मन  में बसे हुए हैं | हमने मन, कर्म, वचन से नंद लाल को प्रेम रूपी पंजे में दृढ़ता से पकड़ लिया है | गोपियाँ कहती हैं कि हम तो जागते, सोते, सपने में, दिन में, रात में कान्हा-कान्हा जपती रहती हैं | गोपियाँ ऊधौ को कहती हैं कि ये जो योग संदेश आप हमारे लिए लेकर आए हैं ये तो सुनकर ही कड़वी ककड़ी जैसा लग रहा है | गोपियाँ कहती हैं कि ये आप हमारे लिए ऐसी बीमारी लेकर आए हो जिसके बारे में हमने पहले न तो कभी सुना है ना ही ऐसा देखा है | हे ऊधौ, ये योग संदेश जो आप हमारे लिए लेकर आए हैं ये भला हमारे किस काम का, क्योंकि हमारे मन में तो केवल श्रीकृष्ण बसे हुए हैं ये तो उन लोगों को सौंप दो अर्थात उन लोगों को दे दो जिनका मन चंचल है |

हरि हैं राजनीति पढ़ि आए | 

समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए | 

इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए | 

बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेश पठाए | 

उधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए | 

अब अपने मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए | 

ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जै और अनीति छुड़ाए | 

राज धर्म तौ यहै 'सूर', जो प्रजा न जाहिं सताए | | 

व्याख्या - उपरोक्त पंक्तियों में गोपियाँ कहती हैं कि श्रीकृष्ण ने राजनीति पढ़ ली है | वे तो पहले ही चालाक थे अब उन्होंने गुरु ग्रंथ भी पढ़ लिया है जिससे वे और चालाक हो गए हैं | उनकी बुद्धि और बढ़ गई है इसलिए तो उन्होंने ऊधौ द्वारा योग संदेश भेजा है | गोपियाँ कहती हैं  कि ऊधौ आप तो भले व्यक्ति हैं इसमें आपका कोई दोष नहीं है |  श्रीकृष्ण मथुरा जाते समय हमारा मन अपने साथ ले गए थे उनसे कहना कि हमें हमारा मन वापस लौटा दें | गोपियाँ कहती हैं कि श्रीकृष्ण ने राजधर्म नहीं निभाया है राजा का धर्म तो ये होता है कि प्रजा को सताया न जाए लेकिन वे तो हमें सता रहे हैं | 

Post a Comment

0 Comments